7. अन्वेषण
7. अन्वेषण -रामनरेश त्रिपाठी
कवि परिचय
पं. रामनरेश त्रिपाठी का जन्म सन् 1889 में जौनपुर ज़िले के कोइरीपूर नामक गाँव में हुआ था। उत्कृष्ट देश प्रेम और राष्ट्र भक्ति के कारण सन् 1921 में आपको 18 महीने के कारावास का दंड मिला। त्रिपाठी जी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि हैं। आप स्वच्छंदतावादी कवि हैं। आपके तीन खण्ड-काव्य स्वप्न, मिलन, पथिक प्रसिद्ध हैं। त्रिपाठी जी अच्छे पत्रकार भी थे।
शब्दार्थ
अन्वेषण = खोजकुंज = लताओं से घिरा हुआ, बगीचा
बन = वन, जंगल
दीन = गरीबआह = हायबाट जोहना = राह देखना, प्रतीक्षा करना
चमन = बाग
मान = सम्मानरोजाना = आकर्षित करना, ललचानापतित = नीच, आचारहीनविरक्त = अनासक्त, जिसे कोई रुचि न हो
जग = संसार
अनित्यता = जो हमेशा न हो, बिना क्रम केउत्थान = विकास, ऊपर उठनापतन = ह्रास, हानिबेबस = मजबूर, लाचारचरण = पैरकर्म = काममगन = व्यस्तकथन = कहनासौंदर्य = सुंदरतासुमन = फूल, पुष्पविस्तार = फैलाव सृजन = निर्माण, रचनादीनबंधु = ईश्वरप्रदान करना = देनादृगों = आँखवचन = बात, कथन
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुंज और बन में ।तू खोजता मुझे था, तब दीन के वतन में।।
तू आह बन किसी की, मुझको पुकारता था। मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में ।।
मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू। मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में।।
बन कर किसी के आ, मेरे लिये बहा तू।आँखें लगी थी मेरी, तब मान और धन में।
बाजे बजा-बजा के, मैं था तुझे रिझाता। तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में।
मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।उत्थान भर रहा था, तब तू किसी के पतन में।
बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरण में ।
तूने दिये अनेकों अवसर, न मिल सका मैं ।तू कर्म में मगन था,मैं व्यस्त था कथन में ।।
2.तू रूप है किरण में, सौंदर्य है सुमन में। तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में।
तू ज्ञान हिंदुओं में, ईमान मुस्लिमों में। में।।तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सृजन में।।
हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू। देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वयन में।।
कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है। मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में I
दुखों में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ। ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में।।
1. ईश्वर की प्राप्ति के लिए समाज सेवा भी एक मार्ग है। आपकी दृष्टि से समाज सेवा कैसी होनी चाहिए?
ज. ईश्वर भी हमारी सहायता समाज के माध्यम से ही करते हैं। जब भी हम मुसीबत में होते हैं तो समाज का कोई व्यक्ति या तत्व हमारी सहायता करता है। इसी प्रकार समाज को भी हमारी ज़रूरत है, विशेषकर गरीब, अपाहिजों, जीव-जंतुओं आदि को। अतः दीन-दुखियों की सेवा ही समाज सेवा है औरसमाज सेवा ही ईश्वर की सेवा है।
2.दीन-दुखियों की सहायता करना और दान करना पुण्य कार्य माना जाता है। इस मान्यता पर अपने-अपने विचार प्रकट करते हुए चर्चा कीजिए।
ज. ईश्वर को दीनबंधु भी कहा जाता है। अतः दीन-दुखियों की सेवा करनेवाला ईश्वर के समान है। भारत में इसी सेवा के लिए दानधर्म की परंपरा है। इसी कारण दीन-दुखियों की सहायता करना और दान करना पुण्य कार्य माना जाता है।
3.कवि भगवान को कहाँ-कहाँ ढूँढ़ता है?
ज. कवि भगवान को कुंज, वन, संगीत, भजन, चमन, मान, धन आदि में ढूँढ़ता है।
4.पाठ के आधार पर बताइए कि भगवान किस-किस रूप में मिल सकता है?
ज. भगवान हमें दीन, दुखियों की आह, दुखियों के द्वार पर, बेबस लोगों, कर्म आदि रूपों में मिल सकता है।
5.कवि भगवान से क्या प्रार्थना करता है?
ज. कवि भगवान से प्रार्थना करता है कि मुझे ऐसी प्रतिभा दो कि मैं तुम्हारा निवास अपनी आँखों, मन, हृदय और कर्म में देख सकूँ। मैं तुम्हें सुख-दुख प्रत्येक परिस्थिति में स्मरण करूँ। मुझे दीन-दुखियों की सेवा का मौका और साहस दो। तुम मुझे कष्ट सहने की शक्ति दो।
6.कवि ईश्वर को कुंज और बन में क्यों ढूँढ़ता था?
ज. ईश्वर की खोज में लोग जंगलों में तपस्या करने जाते हैं। कुछ लोग संसार त्याग कर सन्यासी बन जाते हैं। कवि को भी लगा कि ईश्वर एकांत, निर्जन स्थानों में ही बसते हैं। इसलिए वह कुंज और वन में ईश्वर को ढूँढ़ने गया।
7.अनेक अवसर मिलने पर भी कवि क्यों लाभ नहीं उठा सका?
ज. कवि ईश्वर को निर्जन स्थानों में ढूँढ़ रहा था। वह सोचता था कि ईश्वर धर्मस्थलों या वन में बसता है। कितुं ईश्वर दुखियों के द्वार पर बैठकर कवि की प्रतीक्षा कर रहा था। वह देखना चाहता था कि कवि दुखियों की सहायता करने पहुँचता है या नहीं। लेकिन कवि वहाँ नहीं पहुँचा। इस कारण कवि ईश्वर के मिलने के अवसरों का लाभ नहीं उठा सका। वह इधर-उधर भटकता रहा और ईश्वर उसके पास ही था।
8. किरण, सुमन, पवन और आकाश में ईश्वर के किस रूप का दर्शन किया जा सकता है?
ज. किरण में ईश्वर के रूप का दर्शन होता है। सुमन में ईश्वर के सौंदर्य का दर्शन किया जा सकता है। पवन का प्राण भी ईश्वर है। संपूर्ण आकाश में ईश्वर ही व्याप्त है। तात्पर्य है कि प्रकृति के कण-कण मे ईश्वर का वास है। अतः प्रकृति के कण-कण में ईश्वर के दर्शन होते हैं।
(आ) इन प्रश्नों के उत्तर दस-बारह पंक्तियों में लिखिए।
9.समाज में फैले बाह्याडंबरों के विरोध में कवि क्या संदेश देता है?
ज. कवि ने ईश्वर भक्ति संबंधी बाह्याडंबरों का विरोध किया है। वह कहता है कि ईश्वर की भक्ति सच्चे हृदय से की जानी चाहिए। ईश्वर बाग-बगीचों या जंगल में नहीं बसता। वह धर्मस्थलों में भी नहीं बसता। वह दुखियों के साथ रहता है। वह हमारे आस-पास अनेक रूपों में विद्यमान रहता है। वह संगीत या भजन में नहीं, दुखियों के द्वार पर बसता है। इसलिए मान-धन जुटाकर ईश्वर को रिझाना व्यर्थ है। उसे तो दुख जन के आँसुओं में ही पाया जा सकता है। कवि का कहना है कि ईश्वर सत्कर्म करने से प्राप्त होते हैं, न कि केवल कीर्तन-भजन करने से। अतः हमें ईश्वर भक्ति में दिखावा नहीं करना चाहिए। ईश्वर प्रकृति के कण-कण में बसता है अतः हमें धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। आज मनुष्य ईश्वर के नाम पर हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि समुदायों में बँट गया है। धर्म मानवजाति को जोड़ता है तोड़ता नहीं। यही ईश्वर की हम से अभिलाषा भी है।
10. दुख विपत्ति में संयम से रहने के लिए कवि क्या प्रार्थना करता है?
ज. दुख विपत्ति में संयम से रहने के लिए कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे प्रभु, मुझे ऐसी प्रतिभा दो कि मैं तुम्हें मन, कर्म और वचन में देख सकूं। हे ईश्वर, बिना कष्ट या संघर्ष के जीवन में सफलता नहीं मिलती। इतिहास साक्षी है कि सफलता उसे ही मिली है जिसने कठिनाइयाँ और दुख झेला है। इसलिए हे ईश्वर, मैं ऐसा नहीं कहता कि मुझे दुख न मिले। परंतु तुम मुझे दुखों को झेलने की शक्ति दो। हे दीनबंधु, तुम मुझमें कष्ट सहने की क्षमता का विकास करो। मैं दुख से कभी हार न मानूँ। सुख में तुम्हें कभी न भूलो। तुम मेरे मन में ऐसी शक्ति का संचार करो।
लघु प्रश्न (चार – पाँच पंक्तियों में उत्तर लिखिए।)
1. ‘अन्वेषण’ कविता से हमें क्या संदेश मिलता है?
ज. ‘अन्वेषण’ कविता से हमें संदेश मिलता है कि ईश्वर कण – कण में व्याप्त है। वह हमारे आस – पास ही है। लेकिन हम उसे देख नहीं पाते। क्योंकि हम उसे गलत स्थान पर खोजते हैं। हम ईश्वर को मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों में खोजते हैं। लेकिन ईश्वर तो गरीबों के साथ है। वह दीन – दुखियों के साथ है। वह ज्ञान है। वह ईमान है। वही प्रेम है। वही सत्य है। इसलिए हमें ईश्वर की खोज के लिए वन वन भटकने की ज़रूरत नहीं है। दीन – दुखियों की सेवा करो। ईश्वर अपने – आप तुम्हें मिल जाएँगे।
2.अन्वेषण कविता में कवि ईश्वर से कैसी प्रतिभा माँग रहा है?
ज. अन्वेषण कविता में कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे ! ईश्वर ! मुझे ऐसी प्रतिभा दो कि मैं तुम्हें अपने तन – मन में देख सकूँ। तुम मुझे कष्ट झेल सकने की शक्ति दो। मैं दुखों में हार न मानूँ। सुख में भी तुम्हें याद रखू।
3.. आप ईश्वर के नाम पर चल रहे आडंबरों और अंधविश्वासों का विरोध किस प्रकार करेंगे?
ज. मैं लोगों को ऐसी कविता सुनाऊँगा। मैं उन्हें आडंबर और अंधविश्वासों के दूर करने वाली कहानियाँ सुनाऊँगा। इस संदर्भ में महापुरुषों के संदेश सुनाऊँगा। जगह – जगह जागरूकता व भाईचारे के लिएपोस्टर बनाकर चिपकाऊँगा। आडंबरों के विरोध में पुस्तक लिखूंगा। अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक ऐसी संख्या बनाऊँगा जो धार्मिक आडंबरों से लोगों को सावधान करें।
4.कवि ईश्वर को कहाँ – कहाँ ढूढ़ता था? वह ईश्वर से क्यों नहीं मिल सका?
ज.ईश्वर की खोज में लोग जंगलों में तपस्या करने जाते हैं। कुछ लोग संसार त्याग कर संन्यासी बन जाते है। कवि को भी लगा कि ईश्वर एकांत, निर्जन स्थानों में ही बसते हैं। इसलिए वह कुंज और वन में ईश्वर को ढूँढ़ने गया। कवि ईश्वर को निर्जन स्थानों में ढूँढ़ रहा था। वह सोचता था कि ईश्वर धर्मस्थलों या वन में बसता है। किंतु ईश्वर दुखियों के द्वार पर बैठकर कवि की प्रतीक्षा कर रहा था। वह देखना चाहता था कि कवि दुखियों की सहायता करने पहुंचे थे या नहीं। लेकिन कवि वहाँ नहीं पहुँचा। इस चारण कवि ईश्वर के मिलने के अवसरों का लाभ नहीं उठा सका। वह इधर-उधर भटकता रहा और ईश्वर उसके पास ही था। किरण में ईश्वर के रूप का दर्शन होता है। सुमन में ईश्वर के सौंदर्य का दर्शन किया जा सकता है। पवन का प्राण भी ईश्वर है। संपूर्ण आकाश में ईश्वर ही व्याप्त है। तात्पर्य है कि प्रकृति के कण-कण में ईश्वर का वास है। अतः प्रकृति के कण-कण में ईश्वर के दर्शन होते हैं। इसलिए यदि हमें ईश्वर से मिलना है तो हमें प्रकृति में स्थित प्रत्येक जीव-जंतु से प्रेम करना होगा।
5.ईश्वर प्राप्ति का सच्चा मार्ग क्या है? ‘अन्वेषण’ कविता के आधार पर लिखिए।
ज अन्वेषण’ कविता के कवि रामनरेश त्रिपाठी जी हैं। प्रस्तुत कविता में कवि ने सच्ची ईश्वर भक्ति के बारे में बताया है। कवि का कहना है कि ईश्वर प्राप्ति लोगों की सेवा से ही हो सकती है। वे कहते हैं कि मैं ईश्वर को बाग-बगीचों में ढूँढ़ रहा था मैं उसे वन-वन खोज रहा था। किंतु वह तो दीन-दुखियों के देश में निवास करता है। वह गरीबों की आह बनकर हमें पुकारता है। इसलिए ईश्वर से मिलने के लिए तो हमें दीन-दुखियों और गरीबों के द्वार तक जाना होगा उनकी सेवा करनी होगी। कवि संगीत और भज़न द्वारा ईश्वर को रिझा रहा था। लेकिन ईश्वर तो दुखियों के द्वार पर मेरी प्रतीक्षा में खड़ा था। कवि उद्यान में ईश्वर की राह देख रहा था। वह दुखियों का ऑसू बनकर कवि के लिए बहता रहा ताकि वह जाग सके। लेकिन कवि मान और धन एकत्र करने में लगा था। ईश्वर दीन-दुखियों व दलित लोगों के उत्थान में लगा था और कवि संसार के नश्वरता पर शोक प्रकट कर रहा था। कवि कहता है कि ईश्वर लाचार और गरीब लोगों के बीच में ठहरे थे और मैं उसे स्वर्ग में ढूँढ़ रहा था। कवि गर्व में डूबा था
संदर्भ सहित व्याख्या
पद्यांश -1
तू आह बन किसी की, मुझको पुकारता था। था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में।।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘उमंग – 2′ के अन्वेषण’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके कवि रामनरेश त्रिपाठी जी हैं। त्रिपाठीजी द्विवेदी युग के सुप्रसिद्ध कवि हैं। वे स्वच्छंदतावादी है। प्रस्तुत पंक्तियों में ईश्वर की सच्ची भक्ति गरीबों की सेवा बताई गई है।
व्याख्या : कवि का कहना है कि ईश्वर सदैव गरीबों के उत्थान में लगा रहता है। जब भी कोई गरीब दुख में आह भरता है ईश्वर हमारी प्रतीक्षा में वहाँ खड़ा हो जाता है। वह सोचता है कि मेरा कोई भक्त वहाँ आये और उस गरीब व दीन-दुखियों की सहायता करे। कवि इसी भाव को अपनी कविता के माध्यम से उजागर कर रहे हैं। उनका कहना है कि ईश्वर के बंदों की सेवा ही ईश्वर सेवा है। अतः ईश्वर को संगीत भजन के माध्यम से रिझाने से बढ़िया है कि हम दीन-दुखियों की सेवा करें। ईश्वर अपने आप हमें मिल जायेंगे।
गद्यांश-2
कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में ।
संदर्भ :
प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘उमंग – 2’ के ‘अन्वेषण’ नामक पाठ से उद्धृत है। इसके कवि रामनरेश त्रिपाठी जी हैं। त्रिपाठी जी द्विवेदी युग के सुप्रसिद्ध कवि हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में ईश्वर ने धैर्य और साहस का ईश्वर से वरदान माँगा है।
व्याख्या : त्रिपाठी जी का कहना है कि इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो कठिनाइयाँ झेलता है यश उसी को प्राप्त होता है। अतः कवि यह नहीं कहता कि मुझे कष्ट मत दो। कवि ईश्वर से कष्ट सहने की क्षमा मांगता है। वह ईश्वर से धैर्य और साहस का वर माँगता है I
पद्यांश -3
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुंज और बन में। तू खोजता मुझे था, तब दीन के वतन में।।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘उमंग 2’ के ‘अन्वेषण’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके कवि रामनरेश त्रिपाठी जी हैं। त्रिपाठी जी द्विवेदी युग के सुप्रसिद्ध कवि हैं। वे स्वच्छंदतावादी हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने ईश्वर की सच्ची भक्ति करने का संदेश दिया है।
व्याख्या : कवि कहते हैं कि ईश्वर गरीबों के यहाँ वास करते है। मुझे यह बात मालूम नहीं थी। इसलिए मैं ईश्वर को वन-वन ढूँढ़ रहा था। कवि इन पंक्तियों के माध्यम से उन लोगों को जगाने का प्रयास कर रहे हैं जो संसार की सेवा छोड़ ईश्वर की खोज में योगी हो जाते हैं।
पद्यांश -4
तूने दिये अनेकों अवसर, न मिल सका मैं।तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में।।
संदर्भ : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘उमंग- 2′ के अन्वेषण’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके कवि रामनरेश त्रिपाठी जी हैं। त्रिपाठी जी द्विवेदी युग के सुप्रसिद्ध कवि हैं। वे स्वच्छंदतावादी हैं। पंक्तियों में ईश्वर की खोज संबंधी जिज्ञासा का समाधान कवि ने बड़े ही सुंदर ढंग से किया है।
व्याख्या : कवि का कहना है कि ईश्वर हमारे पास ही विद्यमान है। वह हमें स्वयं से मिलने के अनेक अवसर देता है। हम ही उसे पहचान नहीं पाते। हमारे आस-पास वह दीन-दुखियों को हमारी परीक्षा लेने लिए भेजता है। ईश्वर हमेशा कर्म में विश्वास रखता है। जो व्यक्ति केवल बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और कर्म नहीं करते उन्हें ईश्वर कभी नहीं मिल सकता।