5.ललदयद
कवि परिचय
ललद्यद कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय संत-कवयित्री हैं।
जीवन काल : जन्म सन् 1320 - मृत्यु सन् 1391 माना जाता है। जन्म स्थान : कश्मीर के सोपोर के सिमपुरा गाँव में हुआ था।उनके जीवन के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती।
ललद्यद को लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारिफा आदि नामों से भी जाना जाता है। ललद्यद की रचनाएँ लोक - जीवन के तत्वों से प्रेरित हैं।उनकी रचनाओं में जनता की सरल भाषा का प्रयोग हुआ है। इसी कारण ललद्यद की रचनाएँ सैकड़ों सालों से कश्मीरी जनता की स्मृति और वाणी में जीवित हैं।
वे आधुनिक कश्मीरी भाषा का प्रमुख स्तंभ मानी जाती हैं। इन्होंने वाख शैली में अपनी काव्य रचना की है। वे कबीर की भाँति जनचेतनावादी कवयित्री हैं। का हिंदी अनुवाद
प्रस्तुत पाठ में ललद्यद के ललद्यद ने आत्मज्ञान को ही सच्चा ज्ञान माना है। चार वाख प्रस्तुत वाखों का अनुवाद मीरा कांत ने किया है।
संदर्भ सहित भावार्थ
1. रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।
प्रसंग :
प्रस्तुत 'वाख' हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक के ललद्यद पाठ से लिया गया है। ललद्यद कश्मीर की संत कवयित्री है। ललद्यद के वाख प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत वाख का हिंदी अनुवाद मीरा कांत ने किया है। इस वाख में ललद्यद ने ईश्वर प्राप्ति के लिए किए जाने वाले अपने प्रयासों की व्यर्थता की चर्चा की है।
भावार्थ :
ललद्यद कहती हैं कि जीवन क्षणभंगुर है। यह कच्चे धागे की रस्सी की भाँति है जो कभी भी टूट सकती है। ईश्वर मिलन के मेरे सारे प्रयास विफल हो रहे हैं। पता नहीं वो मेरी विनती कब सुनेंगे। उनसे मेरा मिलन जाने कब होगा। उनके मिलन के लिए मेरे मन में रह-रहकर तड़प उठती है। पता नहीं
मुझे कब मुक्ति मिलेगी।
विशेष :
1. भाषा अत्यंत सरल व स्वाभाविक है।
2. भाव रहस्यवाद से प्रेरित है।
3. ईश्वर मिलन की उत्कट अभिलाषा है।
2.खा - खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की।
प्रसंग :
प्रस्तुत 'वाख' हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक के ललद्यद पाठ से लिया गया है। ललद्यद कश्मीर की संत कवयित्री है। ललद्यद के वाख प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत वाख का हिंदी अनुवाद मीरा कांत ने किया है। इस वाख में बाह्याडंबरों का विरोध किया गया है। अंतःकरण से समभावी रहने की प्रेरणा है। संसार
के मायाजाल में कम से कम लिप्त होने का संदेश है।
भावार्थ :
ललद्यद ने मनुष्य को स्वाभाविक ढंग से रहने की प्रेरणा दी है। खा-खाकर से उनका अभि प्राय भोग से है। न खाकर से उनका अभिप्राय योग से है। उनका कहना है कि मनुष्य को न तो योग से ईश्वर प्राप्त होंगे, न ही भोग से। हमें स्वाभाविक मार्ग अपनाना चाहिए। मध्यमार्ग अपनाने वाले का ही जीवन सफल हो सकता है। उसे ही मुक्ति मिल सकती है। योग या भोग दोनों में से किसी की भी अधिकता हमें ईश्वर से दूर ले जाती है।
विशेष :
1. धार्मिक आडंबरों का विरोध है।
2. सहज जीवन की प्रेरणा है।
3. आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम - सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई?
प्रसंग :
प्रस्तुत 'वाख' हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक के ललद्यद पाठ से लिया गया है। ललद्यद कश्मीर की संत कवयित्री है। ललद्यद के वाख प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत वाख का हिंदी अनुवाद मीरा कांत ने किया है। इस वाख में कवयित्री के आत्मालोचन की अभिव्यक्ति है। इसमें सत्कर्मों की प्रेरणा है।
भावार्थ :
ललद्यद कहती हैं कि ईश्वर हमें संसार में छल-कपट के साथ नहीं भेजता। संसार में आकर छल कपट सीख जाते हैं। यहाँ सीधे मार्ग पर नहीं चलते। ईश्वर प्राप्ति के लिए भी हठयोग साधना करते हैं। सुषुम्ना नाड़ी की हठयोग साधना करके भी कुछ प्राप्त नहीं होगा। हठयोग करते हमारा सारा जीवन बीत जाता है। अंत में अपनी उपलब्धियों के बारे में सोचने पर स्वयं को खाली हाथ पाते हैं। ईश्वर को समर्पित करने लायक हमारे पास कुछ भी नहीं होता। उनका मानना है कि संसार रूपी सागर पार करने के लिए सत्कर्म ही सहायक होते हैं। यह एकमात्र उपलब्धि है जो हमारे जीवन को सफल बना सकती है।
विशेष :
1. धार्मिक आडंबरों का विरोध है।
2. सहज भक्ति की प्रेरणा है।
4. थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमान।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।।
प्रसंग :
प्रस्तुत 'वाख' हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक के ललद्यद पाठ से लिया गया है। ललद्यद कश्मीर की संत कवयित्री है। ललद्यद के वाख प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत वाख का हिंदी अनुवाद मीरा कांत ने किया है। इस वाख में भेदभाव का विरोध है। इसमें ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध है। ललद्यद ने आत्मज्ञान को ही सच्चा ज्ञान माना है।
भावार्थ :
ललद्यद कहती हैं कि ईश्वर घट-घट में बसता है। इसलिए हमें हिंदू और मुसलमान में भेद नहीं करना चाहिए। क्योंकि उन सब में भी ईश्वर का स्वरूप है। ज्ञानी लोग स्वयं को जानने का प्रयास करते हैं। अपना आत्म विश्लेषण करते हैं। क्योंकि आत्मज्ञान से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है।
विशेष :
1. भेदभाव का विरोध है।
2. भाषा सरल व सहज है।
अभिव्यक्ति-सृजनात्मकता
2. मुक्ति का क्या अभिप्राय है? मनुष्य को मुक्ति कैसे मिल सकती है?
ज. मुक्ति का अभिप्राय ज्ञान प्राप्ति से है। ज्ञान प्राप्ति से ही हमारा जीवन सफल होता है। सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाये तो हम सत्कर्म करते हैं। इसी से हमारा यश फैलता है। संसार में हमारा नाम अमर हो जाता है। इसी को मुक्ति व मोक्ष कहा जाता है।
3. धार्मिक एकता की स्थापना के लिए हम क्या प्रयास कर सकते हैं?
ज. धार्मिक एकता की स्थापना के लिए हमें कबीर, ललद्यद जैसे संत कवियों की वाणियों को समाज में प्रेरित करना चाहिए। पाठ्यपुस्तकों में इन्हें स्थान मिलना चाहिए। हमें अन्य धर्मों के लोगों के साथ मित्रता करनी चाहिए। उनके त्योहार, खुशियों व गर्मियों में सम्मिलित होना चाहिए। त्यौहारों पर एक-दूसरे को मुबारकबाद देनी चाहिए। एक-दूसरे के धार्मिक ग्रंथों को पढ़ना चाहिए। एक-दूसरे के धर्मों के प्रति सद्भावना रखनी चाहिए। हमें ध्यान रखना चाहिए कि किसी के साथ धर्म के नाम पर भेदभाव न हो।
4. कवयित्री ने परमात्मा प्राप्ति का क्या उपाय बताया है?
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर आठ - दस वाक्यों में लिखिए।
ज. कवयित्री कहती हैं कि हमारी भक्ति सहज होनी चाहिए। उसमें आडंबर नहीं होना चाहिए। किसी भी तत्व की अधिकता नहीं होनी चाहिए। न तो हमें हठयोग करना चाहिए और न ही अधिक भोग । हमें मध्य मार्ग अपनाना चाहिए। सभी ईश्वर प्राप्ति हो सकती है। ईश्वर प्राप्ति यहाँ-वहाँ भटकने से नहीं होगी। ईश्वर प्राप्ति के लिए हमें स्वयं को पहचानना होगा। आत्मज्ञान ही परमात्मा प्राप्ति का मार्ग है हमें सत्कार्य करने होंगे। सच्चे व भले कार्यो को करने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
5. कवयित्री ने परमात्मा प्राप्ति के मार्ग में किसे बाधक मानती है?
ज. कवयित्री भेदभाव को परमात्मा प्राप्ति के मार्ग में बाधक मानती है। उसका कहना है कि ईश्वर सर्वत्र है। हमें किसी के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए। चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, सबको ईश्वर का स्वरूप मानना चाहिए। हमें ईश्वर प्राप्ति के सरल मार्ग को छोड़कर हठयोग साधना नहीं करनी चाहिए। अधिक भोग व अधिक योग दोनों ही ईश्वर प्राप्ति में बाधक हैं। ईश्वर प्राप्ति सबके प्रति समभावा रखने से ही हो सकती है। सीधे राह से न चलना भी परमात्मा प्राप्ति में बाधक है। इसलिए हमें आडंबरों से बचना चाहिए। सत्कर्मों के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए।
6. आपने कबीर को पढ़ा है। ललद्यद महिला होते हुए भी धर्म की संकीर्णताओं पर वैसे ही प्रहार करती हैं, जैसे कबीर। कबीर से तुलना करते हुए इनकी विशेषताएँ लिखिए।
ज. कबीर एक महान संत कवि थे। ललद्यद के वाख के भाव कबीर-काव्य के अत्यंत निकट प्रतीत होता है। लेकिन ललद्यद के काव्य में ईश्वर के प्रति एक विरह भाव भी है जो कबीर काव्य में नहीं दिखाई देता, उदाहरणार्थ - ‘जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।' ललद्यद इसलिए भी कबीर से अधिक महत्व रखती हैं क्योंकि वे एक महिला हैं। उस काल में किसी महिला द्वारा इस प्रकार लेखन अत्यंत साहसिक कार्य था। धार्मिक आडंबरों व सामाजिक भेदभाव के विरोध के स्वर भी दोनों की वाणी में मुखरित हुए हैं, जैसे- "हिंदु मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ। कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकटि न जाइ।| कबीर 'थल-थल में बसता है शिव ही, भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमाँ।-ललद्यद हम देखते हैं कि ललद्यद की भाषा कबीर की तुलना में भी सहज है। वाखों की पंक्तियों का दोहों की तुलना में छोटा होना भी इनके भावों के प्रभाव को बढ़ाता है।
सारांश
प्रस्तुत वाखों की रचयिता ललद्यद हैं। वे कश्मीर की संत कवयित्री हैं । ललद्यद की रचनाएँ सैकड़ों सालों से कश्मीरी जनमानस में प्रचलित हैं। प्रस्तुत पाठ में चार वाखों का हिंदी अनुवाद है।
ललद्यद कहती हैं कि जीवन क्षणभंगुर है। यह कच्चे धागे की रस्सी की भाँति है जो कभी भी टूट सकती है। ईश्वर मिलन के मेरे सारे प्रयास विफल हो रहे हैं। पता नहीं वो मेरी विनती कब सुनेंगे। उनसे मेरा मिलन जाने कब होगा। उनके मिलन के लिए मेरे मन में रह-रहकर तड़प उठती है। ललद्यद ने मनुष्य को स्वाभाविक ढंग से रहने की प्रेरणा दी है। उनका मानना है कि न तो भोग से संसार प्राप्त होता है, न ही योग से मुक्ति मिलती है मध्यमार्ग अपनाने वाले का ही जीवन सफल माना जाता है। उसे ही मुक्ति मिल सकती है। हम संसार में आते समय तो सीधे ही रहते हैं। संसार में आकर छल-कपट सीख जाते हैं। यहाँ सीधे मार्ग पर नहीं चलते। यही कारण है कि सारा जीवन के बाद जब हम अपनी उपलब्धि के बारे में सोचते है तो स्वयं को खाली हाथ पाते हैं। ईश्वर को समर्पित करने लायक हमारे पास कुछ भी नहीं होता। ईश्वर घट-घट में बसता है। इसलिए हमें हिंदू और मुसलमान में भेद नहीं करना चाहिए। ज्ञानी लोग स्वयं को जानने का प्रयास करते हैं। अपना आत्मविश्लेषण करते हैं। क्योंकि आत्मज्ञान ही ईश्वरप्राप्ति है l
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